कभी देख लो,
मुड़कर, रुककर,
उन झुग्गियों में, झोपड़ियों में,
फुटपाथ पर,
गंदे नालों पर,
बजबजाती बदबूदार बस्तियों में,
इंसान रहते हैं,
या इंसान के वेश में,
कोई और रहता है,
चूल्हे में आग जली क्या,
क्षुधा अग्नि शमन हुआ क्या?
अस्थि पंजर काया,
पथराई आंखें,
चिथड़े मटमैले वसन,
कभी तुमको दिखा क्या?
नहीं ना,
क्योंकि तुम तो अपनी दुनिया में मस्त हो,
भोग विलास आराम तलबी,
अय्याशी के अभ्यस्त हो,
वह इंसान ही है,
जानवर नहीं;
हैरान है, परेशान है,
दुनिया में रहकर,
दुनिया से अनजान है,
थोड़ी सी फिक्र करो उनकी,
जो संभव हो,
मदद करो उनकी,
इंसान होने का,
उन्हें तनिक एहसास करा दो,
कभी मुड़ कर देख लो।
30 अप्रैल 20
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