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Monday, May 31, 2021

व्यक्ति विशेष

कहने को तो,
दुनिया सिर्फ एक भीड़ है;
जहां लोग आते हैं,
चहलकदमी करते हैं,
फिर चले जाते हैं;
किसी अज्ञात पटल पर,
सदा के लिए विस्मृत हो जाते हैं;
पर कुछ लोग
कुछ व्यक्तित्व, कुछ शख्शियत,
ऐसे होते हैं,
जो अपनी महक, अपनी खुश्बू,
अपनी पहचान,
समय के अमिट पलों में,
कुछ यूं छोड़ जाते हैं,
अपनी वाणी, अपने व्यवहार का जादू,
कुछ यूं कर जाते हैं कि,
हमारे साथ,
हमारे बीच,
न रहकर भी,
बहुत याद आते हैं,
याद आते ही रहते हैं;
करिश्माई खुशनुमा ख्यालों से,
दिलो दिमाग को,
तरोताजा कर जाते हैं,
यादों की झंकार से,
मन पुलकित  हर्षित कर जाते हैं;
समय के पार,
जीवंतता का एहसास करा जाते हैं।

भूलने की हजार कोशिशें भी,
नाकाम हो जाती हैं,
क्योंकि खुद में,
अपने व्यक्तित्व के सच्चे प्रतिविम्ब का,
आभास दे जाते हैं।

वक़्त भी झुककर सलाम करता है,
प्रणाम करता है,
एहतराम करता है;
क्योंकि ऐसे विशेष व्यक्तित्व,
समय के सीने को चीर,
समय को पार कर जाते हैं।

Thursday, May 27, 2021

विकास और प्रकृति



अगर प्रकृति का अंधाधुन दोहन होता है,
घातक प्रतिस्पर्धा,
राक्षसीय रूप पकड़ती है;
अगर पारिस्थितिक असंतुलन बढ़ता है,
इन्सान ही इन्सान का,
भक्षण करता है।
प्रकृति का दोहन बेहिसाब नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।

अगर सम्पत्ति, समृद्धि एवं प्रसिद्धि के लिए,
आततायी बलशाली,
निर्बल पर,
बल प्रयोग करता है।
वन संपदा अकूत ऊर्जा संसाधन,
हलाहल कर,
खुद बलवान अमीर बनता है,
इन्सान जीव जन्तु को,
असहाय बेबश निरीह बनाता है।
प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रतिघात नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।

अगर विज्ञान और विकास का, 
झूठा झांसा देकर,
आवोहवा जल जमीन और जीव को,
जहरीला बनाता है,
जमीदोज करता है;
गला फाड़ उन्नति का, सभ्यता का,
नारा भी देता है;
सर्वश्रेष्ठता का,
झूठा दम्भ भी भरता है।
गलतफहमी का गंदा लिबास नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।

अपने हुनर अपनी हैसियत पर,
इतना भी गुरुर न कर,
विज्ञान और विकास की विशाल वसीयत पर,
इतना मगरूर न कर।
अरबों साल की प्राकृतिक संरचना के सामने,
तेरी कुछ हजारों साल की हैसियत क्या है?
अंदाज नही तुझे,
महाप्रलय, महाविस्फोट, महाविनाश का,
सिर्फ़ इन्सान है तू,
इन्सानी हदें पार न कर;
ज्वालामुखी के मुहाने पर कदम हैं तेरे।
और तुझे तनिक भी नही है आभास;
हमे रक्त लथपथ हिज़ाब नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।


छोड़ दे,
अनावश्यक प्रकृति के कलेजे को छलनी करना,
असम्भव होगा बच पाना,
अगर आ गई प्रकृति अपने आप पर।

प्रकृति अगाध है, अथाह भी है,
अपराजेय है, अति विशाल भी है;
दुष्कर है टोह पाना,
इसकी गुत्थियों, इसके रहस्यों को,
अगर खूबसूरत ढाल है,
तो प्रकृति भयानक काल भी है।

जिस आँचल ने तुझे छाया दिया,
उस छाए को छलनी न कर;
जिसने तेरी भूख मिटाई, 
तेरी प्यास बुझाई,
ताजी हवाओं जल जंगल से,I
मातृत्व का एहसास कराई;
उस मातृत्व की ममता को,
अपनी छुछरी हरकतों कारनामों से,
तू कतई मैली न कर।

प्रकृति की गोंद में ही,
तुझे सुख मिलेगा, चैन मिलेगा;
प्राकृतिक दिनचर्या,
सम्यक जीवन ढर्रे में ही,
स्वास्थ्य मिलेगा, सुख मिलेगा,
सब कुछ मिलेगा।

उंगली प्रकृति की, पकड़कर रखना,
ममतामयी डोर जकड़कर रखना,
इंसानी लिप्साओं,
सत्ता,समृद्धि और सुप्रसिद्धि के बावत,
प्रकृति पर दाँव मत खेलना।

याद रहे मां माफ कर देती है,
छोटी छोटी भूलों को,
पर जब सजा देती है,
तो खबर अच्छी तरह लेती है;
कम से कम इतनी होशियारी जरुर रखना,
भूल से भी छेड़ने की जुर्रत कभी मत करना।

क्योंकि प्रकृति जब सजा देगी,
सुधरने सम्भलने का भी,
मौका नही देगी;
इंसान ही हर आघाती एवं आत्मघाती करतूतों की,
गिन गिन कर बदला लेगी;
सारी नासमझी निठल्लेपन की,
बातुनी बड़बोलेपन की,
चाँद फ़तेह, मंगल फ़तेह,
समस्त ब्रह्मांड फ़तेह करने की,
साइंटिफिक सनकेपन की,
बराबर हिसाब लेगी।







हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।




अगर प्रकृति का अंधाधुन दोहन होता है,
घातक प्रतिस्पर्धा,
राक्षसीय रूप पकड़ती है;
अगर पारिस्थितिक असंतुलन बढ़ता है,
इन्सान ही इन्सान का,
भक्षण करता है।
प्रकृति का दोहन बेहिसाब नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।

अगर सम्पत्ति, समृद्धि एवं प्रसिद्धि के लिए,
आततायी बलशाली,
निर्बल पर,
बल प्रयोग करता है।
वन संपदा अकूत ऊर्जा संसाधन,
हलाहल कर,
खुद बलवान अमीर बनता है,
इन्सान जीव जन्तु को,
असहाय बेबश निरीह बनाता है।
प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रतिघात नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।

अगर विज्ञान और विकास का, 
झूठा झांसा देकर,
आवोहवा जल जमीन और जीव को,
जहरीला बनाता है,
जमीदोज करता है;
गला फाड़ उन्नति का, सभ्यता का,
नारा भी देता है;
सर्वश्रेष्ठता का,
झूठा दम्भ भी भरता है।
गलतफहमी का गंदा लिबास नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।

अपने हुनर अपनी हैसियत पर,
इतना भी गुरुर न कर,
विज्ञान और विकास की विशाल वसीयत पर,
इतना मगरूर न कर।
अरबों साल की प्राकृतिक संरचना के सामने,
तेरी कुछ हजारों साल की हैसियत क्या है?
अंदाज नही तुझे,
महाप्रलय, महाविस्फोट, महाविनाश का,
सिर्फ़ इन्सान है तू,
इन्सानी हदें पार न कर;
ज्वालामुखी के मुहाने पर कदम हैं तेरे।
और तुझे तनिक भी नही है आभास;
हमे रक्त लथपथ हिज़ाब नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।

प्रकृति से छेड़छाड़



छोड़ दे,
अनावश्यक प्रकृति के कलेजे को छलनी करना,
असम्भव होगा बच पाना,
अगर आ गई प्रकृति अपने आप पर।

प्रकृति अगाध है, अथाह भी है,
अपराजेय है, अति विशाल भी है;
दुष्कर है टोह पाना,
इसकी गुत्थियों, इसके रहस्यों को,
अगर खूबसूरत ढाल है,
तो प्रकृति भयानक काल भी है।

जिस आँचल ने तुझे छाया दिया,
उस छाए को छलनी न कर;
जिसने तेरी भूख मिटाई, 
तेरी प्यास बुझाई,
ताजी हवाओं जल जंगल से,
मातृत्व का एहसास कराई;
उस मातृत्व की ममता को,
अपनी छुछरी हरकतों कारनामों से,
तू कतई मैली न कर।

प्रकृति की गोंद में ही,
तुझे सुख मिलेगा, चैन मिलेगा;
प्राकृतिक दिनचर्या,
सम्यक जीवन ढर्रे में ही,
स्वास्थ्य मिलेगा, सुख मिलेगा,
सब कुछ मिलेगा।

उंगली प्रकृति की, पकड़कर रखना,
ममतामयी डोर जकड़कर रखना,
इंसानी लिप्साओं,
सत्ता,समृद्धि और सुप्रसिद्धि के बावत,
प्रकृति पर दाँव मत खेलना।

याद रहे मां माफ कर देती है,
छोटी छोटी भूलों को,
पर जब सजा देती है,
तो खबर अच्छी तरह लेती है;
कम से कम इतनी होशियारी जरुर रखना,
भूल से भी छेड़ने की जुर्रत कभी मत करना।

क्योंकि प्रकृति जब सजा देगी,
सुधरने सम्भलने का भी,
मौका नही देगी;
इंसान ही हर आघाती एवं आत्मघाती करतूतों की,
गिन गिन कर बदला लेगी;
सारी नासमझी निठल्लेपन की,
बातुनी बड़बोलेपन की,
चाँद फ़तेह, मंगल फ़तेह,
समस्त ब्रह्मांड फ़तेह करने की,
साइंटिफिक सनकेपन की,
बराबर हिसाब लेगी।

अमन शान्ति



अशांति है, हिंसा है,
कभी सम्पत्ति के नाम पर,
कभी आपत्ति के नाम पर;
रक्तपिपासु तलवारें खिंची हैं,
नफरत से सनी दीवारें बनी हैं;
मानवता कराह रही है,
इंसानियत अंतिम सांसे ले रही है,
अस्त्र शस्त्र, अणु परमाणु,
हथियारों और बारूदों का अंबार लगा है;
कोई रुकने को तैयार नही,
कोई झुकने को तैयार नही;
हमले के लिए आतुर,
युद्ध के लिए व्याकुल।

क्यों हो इतनी उद्धत,
औजार चलाने के लिए,
इन्सान हो, इन्सान का ही कातिल बन बैठे हो;
आखिर किस लिए,
कुछ जमीन के लिए, इंसानी सरहदों के लिए;
सत्ता लोलुप शासकों के सनक के लिए,
सीना चीर दोगे, 
अपने ही जैसे किसी इन्सान का;
क्या मिल जाएगा तुम्हे,
थोड़ी शोहरत,
या साम्राज्य की सरहदें थोड़ी चौड़ी हो जाएगी;
या बिज़नेस व्यापार थोड़ा और अच्छा हो जाएगा।

इन्सान को आखिर क्या चाहिए?
दो वक्त की रोटी,
तन ढकने के लिए कपड़े;
क्यों बढ़ा रखी इतनी भूख,
इतनी इच्छाएं क्यो पाल रखी है?
क्यों किसी को मात देना चाहते हो?
क्यों प्रतिस्पर्धा करते हो किसी से,
धन के लिए, सत्ता शासन के लिए,
जमीन जायदाद समृद्धि शोहरत के लिए?

तुम्हे पता नही की,
भूख तो मिट सकती है,
पर लालच का कोई अंत नही होता;
इच्छाएं कभी खत्म नही होतीं,
एक पूरी होती है तो,
दो जन्म ले लेती हैं,
उलझकर रह जाती है हमारी जिंदगी,
इन्ही अभिलाषाओं के मकड़जाल में।

हम आकांक्षाओं महत्वाकांक्षाओं के भौचक्कर में,
उठा लेते हैं दिग्विजय और विश्वविजय का बीड़ा,
पहन लेते है परिधान,
रईसी, दम्भ और दिखावेपन का;
पाल लेते हैं दुश्मनी और दूरी की विभीषिका,
अपने मन मे, मस्तिष्क में;
कूद जातें है जंगे मैदान में,
नफरत, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा को औजार बनाकर,
झोंक देते हैं खुद को, सभी को,
हिंसा, व्यभिचार, दुराचार अशांति में।

विश्व को अब युद्ध नही, बुद्ध चाहिए।

विश्व को अब युद्ध नही, बुद्ध चाहिए।

अंधविश्वास के घोर अँधेरे से,
हर इन्सान को अब निकलना होगा,
ढोंग पाखण्ड दिखावे के,
चंगुल से सबको बचना होगा,
ज्ञान पुंज प्रकीर्णित कर,
सत्य का साथ पकड़ना होगा,
आडम्बर और अज्ञानता नही,
बस वैज्ञानिक विचार विशुद्ध चाहिए।

सार्वभौमिक सम्पूर्ण वसुंधरा पर,
शांति कायम करना होगा,
अहिंसा अस्तेय के दीपक को,
निडर चिरस्थाई जलना होगा,
विश्व बंधुत्व और मानवता के,
दामन को अब पकड़ना होगा।
स्नेहिल सुखमय संसार बनाने के लिए,
प्रेमदूत प्रबुद्ध चाहिए।

तेरी एक मासूम मुस्कान किसी का,
कठिनतम पीड़ा हर सकती है,
क्षमा याचना झुक जाने से,
भीषण अनहोनी भी टल सकती है;
सद्भाव सहयोग अमन शांति से,
एक बेहतरीन दुनिया बन सकती है।
प्रज्ञा शील करुणा समाधि,
मन वचन कर्म सभी शुद्ध चाहिए।

बदले का भाव, हिसात्मक प्रवृत्ति,
किसी मसले का हल नही है,
शक्ति सम्पत्ति संचय, क्षणिकमात्र दुर्बलता है,
कोई स्थाई बल नही है,
ईष्र्या बैर निंदा जानलेवी क्रूर कीड़े हैं,
सार्थक कोई प्रतिफल नही हैं।
नेह आलिंगन, भातृभाव से भरा,
गौरवशाली सम्यक संबुद्धि चाहिए।

सरहदी संघर्षो को त्यागना होगा,
जाति धर्म से ऊपर उठना होगा,
नस्लीय श्रेष्ठता के वीभत्स दौर से,
सुदूर बहुत दूर निकलना होगा,
साजिशें प्रभुत्व के हथकंडो से परे,
इन्सानी अहमियत को समझना होगा।
वैयक्तिक, साम्प्रदायिक एवं वैश्विक अंतर्द्वंद नही,
सिर्फ शांति सुख समृद्ध चाहिए।



Tuesday, May 18, 2021

वक़्त गुजरते जा रहा,बेअटक और अबाध।

वक़्त गुजरते जा रहा,
बेअटक और अबाध।

किसी के शोहरत और सुख से,
वक़्त बेखबर, बेअसर;
किसी के दुःख और दर्द से,
वक़्त नावाकिफ, बेनजर;
नही थम सकती,
वक़्त की बेपरवाह रफ्तार;
किसी के सामर्थ्य शक्ति से,
किसी के ज्ञान,
किसी के भक्ति से;
किसी होनी किसी अनहोनी से,
वक़्त है आबाद।

वक़्त खुद बादशाह है,
खुदा है,
खुद की मर्ज़ी है,
खुद का ही राज है,
साम्राज्य है;
अपनी गति, अपनी चाल है,
निर्माण है, काल है;
वाकई वक़्त बेमिशाल है;
वक़्त अगोचर, अक्षय,
वक़्त अथाह है।

वक़्त गुजरते जा रहा,
बेअटक और अबाध।
https://youtu.be/z8oHeLnlrO4

हर शख्स यहाँ,एक ख्वाब लिए जीता है।

हर शख्स यहाँ,
एक ख्वाब लिए जीता है।

अगले पल,
मेरी तकदीर बदलने वाली है;
जहालतों भरी,
मेरी तस्वीर, बदलने वाली है;
उम्मीदों का,
स्वप्निल संसार लिए जीता है।

बस थोड़ी सी दूरी,
अभी बाकी है;
थोड़ी सी मेहनत और कुद्दत,
अभी बाकी है;
ओझल मंजिल की,
आस लिए जीता है।

वक़्त गुजरता रहता है,
उम्र ढलती रहती है;
ठोकरों और झंझावातों से,
सांसे उखड़ती रहती हैं;
मरुस्थल में बारिश का,
आभास लिए जीता है।

बुरा भी तो नही,
कोई उम्मीद पालना,
उम्मीद के लिए,
संघर्ष के सांचे में ढालना;
बिना उम्मीद के यहां,
कोई इन्सान कहाँ जीता है।


हर शख्स यहाँ,
एक ख्वाब लिए जीता है।