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Friday, May 10, 2019

और फिर एक सदमा

और फिर एक सदमा!

उबरा नही उस घोर निशा से,
बस मंद मंद छटता गया;
एक क्षणिक प्रभात का ओट लिए,
धीरे धीरे, पर बढ़ता गया;
सोचा की क्या खाक घटायें छायेगी,
घनघोर अँधेरे और विकट फिजायें लौटेगी,
था मनमुदित,प्रफुल्लित यों फुदक रहा;
खुशिओं के आंचल में लिपट रहा,
सहसा संकट के बादल छाये,
हर्षित मनोज झट मुरझाए,
खो गयी हंसी,गम हुआ चपल;
हो गया अवाक्! हो गया अचल;
मन विचलित और आंखे पसीज गयी;
हृदय में अजीब हलचल मच गयी;
कुछ बैठा मुझको कचोट रहा;
जेहन को दम से निचोड़ रहा,
जो आँखों से टप टप रिस रहे,
अनजान दुःख में पिस रहे,
होती घबराहट बार बार;
है वेग सिथिल कितना अपार,
है जीवद्र्ब्य अवशेष नही;
कुछ ख़ास और कुछ विशेष नही;
हो गया खिन्न हो गया उदास,
खो गयी जीने की प्रबल आस;
जग झूठे और सब झूठे,
क्या बचा अगर हम खुद रूठे;
समझेगा कौन, जो कष्ट को जाना नही;
जो जग के झंझट को पहचाना नही;
शायद सबकी है यही नियति,
चलना होगा संग समय की गति;
यदि दुःख आया है तो सुख आएगा,
घनघोर घटा काले बादल से,
बरसात की बूँद टपकेगी,
तिमिर हटा जग को सुरभित करने,
सपनो का सवेरा आएगा




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