और फिर एक सदमा!
उबरा नही उस घोर
निशा से,
बस मंद मंद छटता
गया;
एक क्षणिक प्रभात का
ओट लिए,
धीरे धीरे, पर बढ़ता
गया;
सोचा की क्या खाक
घटायें छायेगी,
घनघोर अँधेरे और
विकट फिजायें लौटेगी,
था
मनमुदित,प्रफुल्लित यों फुदक रहा;
खुशिओं के आंचल में
लिपट रहा,
सहसा संकट के बादल
छाये,
हर्षित मनोज झट
मुरझाए,
खो गयी हंसी,गम हुआ
चपल;
हो गया अवाक्! हो
गया अचल;
मन विचलित और आंखे
पसीज गयी;
हृदय में अजीब हलचल
मच गयी;
कुछ बैठा मुझको कचोट
रहा;
जेहन को दम से निचोड़
रहा,
जो आँखों से टप टप
रिस रहे,
अनजान दुःख में पिस
रहे,
होती घबराहट बार
बार;
है वेग सिथिल कितना
अपार,
है जीवद्र्ब्य अवशेष
नही;
कुछ ख़ास और कुछ
विशेष नही;
हो गया खिन्न हो गया
उदास,
खो गयी जीने की
प्रबल आस;
जग झूठे और सब झूठे,
क्या बचा अगर हम खुद
रूठे;
समझेगा कौन, जो कष्ट
को जाना नही;
जो जग के झंझट को
पहचाना नही;
शायद सबकी है यही
नियति,
चलना होगा संग समय
की गति;
यदि दुःख आया है तो
सुख आएगा,
घनघोर घटा काले बादल
से,
बरसात की बूँद
टपकेगी,
तिमिर हटा जग को
सुरभित करने,
सपनो का सवेरा आएगा
No comments:
Post a Comment