ढूंढ रहा इंसान
स्वयं को!
कभी गिरिजाघर कभी
मन्दिर में
कभी मस्जिद, कभी
गुरूद्वारे में;
कभी पोंगा के पैरों
में, कभी आश्रम के अधियारों में;
कभी मन्त्रों की
माया में तो,
कभी नमाज के नारों
में;
सोचता है कि मिल गया
सकून
कभी चढ़ता सर पर खुदा
का जनून
खुदा बना लेता है
खुदी को
ढूंढ............................................
कोई सडकों पर सो गया
निडर,
कोई महलों में कर
रहा फिकर;
कोई आसमान को छूने
का,
बुनता रहता नित
ख्वाब नया;
कोई हालातों
हवालातों से
ढूंढता रहता नित राह
नया;
सब है सब पर भारी
पहले मेरी बारी, फिर
तेरी बारी;
सुलझा रहा उलझा के
स्वयं को
ढूंढ........................................
कोई सत्ता के मद में
चूर हुआ,
कोई हालातों से
मजबूर हुआ;
कोई साधन सत्ता सुख
और वैभव
उलझन अडचन से दूर
रहा;
कोई खेल खेल में खेल
खेल कों,
नवजीवन से परिपूर्ण
रहा;
कोई हार जीत और लाभ
हानि,
मदहोश मदांध गम और
ग्लानि;
आतंकित करता रहता
स्वयं को
ढूंढ
....................
बचपन से पंहुचा
जवानी में,
फिर बुधेपंन से
कहानी में;
था लाड प्यार, था
जिम्मेदार,
न बोझ बनेगा, बार
बार
सावन देखा, बादल
देखा,
इस दुनिया की, हर
हलचल देखा;
कहीं छोटा तो कहीं
बड़ा हुआ,
जीवन की है डोर बस
तना हुआ
नित नाजुकता से
संभालता स्वयं को
ढूंढ................................
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