मिला नही, अकेले
रहने का डर;
सूनापन, सहमापन, तन्हाईयां,
कुछ कमी सा,
अकेलापन,
अधूरी जिन्दगी,
अधूरे सपने,
बहुत कुछ किया, कुछ
छूट गया,
समय नही शेष, शक्ति
नही अवशेष;
फिर मिला तो,
बिछुड़ने का डर;
कब कैसे क्यों,कहीं
भी
न मिलने से जादा
दर्दनाक,
बिछुड़ने का संशय;
तो वास्तविक बिछुड़ना
तो,
बहुत भयंकर होगा;
बिछुडन कभी आक्रोश
से, कभी आवेग से;
तो कभी मालूम नही
क्यों;
बिछुडन कैसे सहूँ,
क्या उपाय करूँ;
क्या उपाय हमेशा सफल
होते हैं?
यह तो कहीं और किसी
पर
निर्भर करता है;
तो क्या ऐसे ही जीवन
रहेगा?
आस्था संशयात्मक,
भ्रमात्मक
शायद हो;
क्योकि ऐसा ही तो
देखते आया हूँ,
अब तक;
फिर हमारे लिए क्या
अलग होगा?
कभी नही;
फिर भी जीना है,
मरना है, फिर जीना
है;
जीना है, फिर मरना
है;
शायद यही शाश्वत है,
निरंतर है,
और सत्य भी
जनवरी २०१२
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