हे मन तू क्यों भटक
रहा रे,
प्रभु बिन कुछ नहि
साँच यहाँ रे;
पल छिन की यह माया
नगरी
हित सत कुछ न करी
विष घोल यहि मन उपवन
में
सुधि बुधि सब बिसरी
सत सुख से तू दूर
रहा रे
हे मन
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दे छोड़ वृथा जग का
बंधन
लोभ मोह मद कर अरपन
ले नाम प्रभु का
पागल मन
हो जाये सफल यह
जगजीवन
हिय में गुरु ज्ञान
की की ज्योति जला रे
हे
मन............................................
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