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Saturday, May 11, 2019

नदी के किनारे से घर के अंदर तक

बिलकुल घन अँधेरा,
डरावनी रात, उफनती नदी; आस पास छोटी मोटी झाड़ियाँ, सामने भीमकाय नदी, मै और शायद मेरी माँ, और कुछ एक दो लोग साथ में, शायद मछली पकड़ने की आस, किनारे पार निगाह टिकाये हुए कुछ हलचल देखा बोला, “ए मछली है, पकड़ते है, परन्तु क्या वह तो कछुआ निकला, मैंने बोला, “यहाँ मछली कम कछुआ जादा हैं।
ये देखो, यहाँ भी कछुआ ही है। उसके पृष्ठ को दबाते हुए कहा। दो तीन बार किसी अनजान मछली की आकृति तो दिखी, न तो उसको पहचान सके और न ही पकड़ सके । हाँ नदी का किनारा, जिसपे हम खड़े थे, वह तो बिलकुल सन्नाटा भरा निर्जन और दूर दूर तक खुले आसमान के आलावा कुछ भी नही दिखाई दे दिया । कोई विशाल वृक्ष नही, बस छोटी झाड़ियाँ बिना काँटों वाली, परन्तु सामने तो बिलकुल शहर जैसी आकृति जहाँ इमारते और घर दिखाई दे रहे हैं । और नदी पर शायद एक पुल की धुधली प्रतिविम्ब जिस पर कुछ लोग....................
कहीं वह गोमती नदी तो नही !
फिर एक नहर! मेरे एक हाँथ में कुछ किताबें और दूसरे हाथ में कटिया ।  कुछ मछली पकड़ने का प्रयास । इतना बड़ा ठर्रा । मेरी निगाहें नहर की तरफ, उम्मीद है की मछली जरूर मिलेगी, पर क्या, मेरे दाहिने पुनः एक पुल सीधा, वहां ऊपर, अनेक ग्रामवासी इन्तेजार कर रहे की मै उस पर जाऊं (शायद अपने घर की तरफ), तो वे लोग इस पार आते, ऐसा क्यों?
एक बार केवल एक पार कर सकता है ।शायद ऐसा ही था मै हल्के और विनोदी मन से ऊपर चढ़ रहा , पुनः झटके से नीचे आ गया । अरे इतना खड़ा पुल, उस पार में दिनेश यादव रायपुर मुझसे कुछ बातें करने का प्रयास कर रहे हैं और मै शर्म एहसास कर रहा हूँ। क्या कहेंगे वे, जब एक हाथ में मछली और एक हाथ में पुस्तक देखेंगे, शायद बुरा सोचेगे की मै लापरवाह  और पपवित्र हूँ ।
(मेरे घर और रायपुर के बीच में नहर है)
फिर मै और अमृता नदी के दूसरे पार सूनसान रास्ते से आगे आये और बाए एक घर में प्रकाश दिखा, शायद की मूछ दाढी वाला , गठीला शरीर वाला , बिखरे बाल और आक्रोश मुद्रा, कुर्सी पर बैठा, एक हाथ में बंदूक लिए । और उसके सामने कुछ लोग खड़े हैं, कुछ लोग एक विशेष वस्त्र में, खाकी जैसा टोपी पहने, बंदूक लिए जैसे की कोई सैनिक पहरेदारी कर रहा हो । उसने हम लोगो की हत्या का आदेश दिया, हम दोनों पूरी तरह घबराए, भागने लगे, ऊबड़ खाबड़ रास्ते से घने अँधेरे में । वह हम दोनों के पीछे आठ दस पालतू खौफनाक कुत्ते छोड़ दिया । किसी तरह हम चलती ट्रेन में कूद कर बैठ गये, खुले डिब्बे में, शायद यह मालगाड़ी थी । थोडा सा सकूं चलो हम बच गये,  फिर क्या कुत्ते ट्रेन के साथ साथ दौड़ने लगे, यही नही वे दौड़ती ट्रेन में चढ़ गये, शायद उनको इसका प्रशिक्षण मिला था । वे खोजने लगे हम दोनों को, वे जा पहुचे उसी डिब्बे में जहाँ हम छिपे थे, पर किसी तरह हम ट्रेन के इंजन में पहुच गये । क्या उपाय था,इन खरनाक कुत्तों से बचने के लिए, शायद कोई नही ।  इंजन में कोई चालक नही । मैंने कुछ पकड़कर इंजन से पूरे ट्रेन को झटका दिया ताकि कुत्ते ट्रेन से नीचे गिर जाए । जैसे आम का लालची डाल को झकझोर कर आम गिराने की चेष्टा करता है ।
मै सफल रहा, गिर गये सारे के सारे कुत्ते ट्रेन के नीचे, शायद मर गये दबकर, ट्रेन के नीचे,पर पता नही फिर कहां गये वो ।
(इसमें मेरे केस के कुछ बू आती है)
शायद दो दिन हुआ, हम दोनों मिसा कैंट अपने कमरे में, किसी टीचर, शायद सी सी ए इन्चार्गे ने निबन्ध माँगा था, रात के समय इ सुबह प्रस्तुत किया जाना है विद्यालय में । मैंने वादा किया की सुबह मिल जायेगा ।
महानुभाव बिलकुल सुबह आये और खिडकी से झांककर आवाज लगाई, समझ में आ गया की निबंध मांग रहे है चूकि निबंध तैयार था, मै पकड़ा दिया खिड़की खोलकर । महानुभाव तो जैसे अदृश्य हो गये पर दिखाई दिया दूसरा संकेत ! फिर वही खाकी वस्त्र और टोपी वाले, सैनिको के तरह हाथ में बन्दूक लिए, बाएं वाले ब्लाक के तरफ से दौड़े आ रहे हमारी ब्लाक की तरफ । फिर डर ने अपना रंग दिखाया, मैंने खिड़की को यूही खुला छोड़ दिया और आ गया रसोई में अमृता को बताने की वे फिर आ गये । खिड़की से न तो गोली चली न आवाज आई और न ही चेहरा दिखा । न तो कोई दरवाजा खटखटाया । हम दोनों बाथरूम के पास बिलकुल शांत खड़े हो गये । और हृदय गति तेज़ की क्या होगा ! अगले पल गालियों की बरसात, कैसे बच पायेगे यहाँ से, कैसे भाग पायेगे ।
अगर मै अंदर से फायर करता हूँ तो क्या वह काफी होगा ? बिलकुल नहे, वे इतने है । शायद उन्हें नही मालूम मैंने उनको उधर आते देखा,इसलिए चुपचाप दरवाजे पर आके खट खटायेगे, बेल बजायेगे,और मै दरवाजा खोलूँगा और वे मेरा काम तमाम कर देंगे ।
इसलिए काफी देर तक सन्नाटा और विराम!
फिर क्या मेरी नीद ही खुल गयी!
मै विस्तर पर, मेरे आसपास कोई नही, अरे ये तो एक स्वप्न था, मै उठा पंखा बंद किया और देखा की अभी काफी अँधेरा है । पुनः लेट गया और सोचने लगा, मै तो बिलकुल फंस गया था खतरे में, अनुमान लगाया की फिर होता क्या?
होता क्या, कोई रास्ता ही नही बचा था बचने का । सामने दिखे की मारे गये, बात करने का, गिडगिडाने का, पांव पकड़ने का, क्षमा मांगने का, दया दिखाने का, का कोई वक़्त नही ।
दिखे क्या की भून दिए गये ये सेकंड में ।
मैंने सोचा की शायद पीछे के दरवाजे से निकल कर छुप सकते थे, झाड़ियों में, कब तक बैठते वहां, वहां कीड़े मकोड़े कर डर ।
ये भी तो दरवाजा तोड़ते फिर न पाने पर, आसपास खोजते ।
शायद इतना बेवकूफ नही थे ये ।
पहले से कुछ को पीछे के दरवाजे पर खड़ा कर देते ।
पर हम करते ही क्या ?
कोई और राह था ही नही बचने के लिए ।
हा ! मरने से अच्छा था की खतरे में भी कुछ उपाय कर सकते है ।
हो सकता है उनका ध्यान न गया हो उस दिशा में, वे क्रोध में थे, आवेश में थे, आपाधापी में थे ।
ऐसे में कुछ भूल जाना आम बात है ।
चूंकि दरवाजे से नही दिखता पिछला भाग कमरे का तो झाडी में न घुसकर हम आगे निकल सकते है, चाहरदीवारी पार कर के  शायद उस पार हम सुरक्षित आर्मी क्षेत्र में ।
झाड़ियों से हो के भागेगे त दिख सकता है कुछ हिलता हुआ भाग और पकड़े जा सकते है, मारे जा सकते है, अगर उधर मीना और बोस के तरफ से भागते है तो शायद देख लिए जाए उधर खुले भाग में......................
(मन की उलझन जो केस में मिला और बनी हुयी है)
१६/०९/२०१०  

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