अरे मूर्ख!
तो किसे अपना कहता
है?
कौन है तेरा?
कौन है किसका?
यहाँ को न अपना है,
न कोई पराया है;
गर कुछ है बस,
स्वार्थो का झमेला
है;
स्वार्थ है तो
सम्बन्ध है,
गर स्वार्थ नही तो
संबध नही;
तू किससे उम्मीद
रखता है?
कौन तुम्हे क्या दे
सकता है?
व्यर्थ का दूसरे से
आशा क्यों करते हो?
क्या मिलेगा तुझे?
बस निराशा और हताशा!
टूट जाओगे, बिखर
जाओगे;
दूसरे पर भरोसा
करके;
पछताओगे, दूसरो से
आशा करके;
दर्द मिलेगा बस,
शान्ति नही;
आश्वासन मिल सकता
है, पर हकीकत नही;
सबकी नजरो का खिलौना
बन जाओगे!
हंसी का ताज बन
जाओगे,
चेहरे दिखेगे कुछ
और, होंगे कुछ और;
मजाक बनकर रह जाओगे;
काबिलियत की बलि चढ़
जायेगी;
शर्मिन्दगी महसूस
करोगे, खुद पर तरस खाओगे;
खुद को कोसोगे;
ईश्वर को बदनाम
करोगे;
अधिमानव बनकर रह
जाओगे;
घने अँधेरे में डूब
जाओगे;
क्यों? दूसरे से
उम्मीद करके,
मत करो किसी से आशा,
खुद पर करो विश्वास;
अपनी जंग खुद लड़ो;
सिकंदर बनो न की
पिछलग्गू सिपाही;
खुद ज्योति प्रकाशित
करो, दूसरे की किरण की मोहताज़ नही:
अनुकरण मत करो, वरन
अनुकरण किये जाओ;
विकराल तूफ़ान का
अग्रपाद बनो!
जागृत करो अपनी आत्म
ऊर्जा को;
विसरित करो अपनी स्व
प्रताप को;
आलोकित करो, विश्व
धुंध को;
पहचानो, अपनी शक्ति
को; मानव की महा शक्ति;
दिखा दो दुनिया को
अपनी प्रतिभा;
संसार के साँसत में
सिसकती तस्वीर!
उठो, जागो, आगे बढ़ो!
वह जीवन क्या, जो
यूही गुजर जाए;
हे सभ्य समाज के सजग
सजीव!
सजा दो सुंदर सपनों
की सुनहली घरती;
उठो हे आत्मदीप!
चलो दुनिया को सुंदर
बनाने;
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