किसे पता?
कहाँ,किसे,कब,कैसे,क्या हो जाए?
जीवन भर के सपने
वादे, पलक पलटते ही बिखर जाए;
कायर की क्या बाट
करूं मै, योद्धा भी न बच पाए;
काल भवर के चंगुल
से, भला कब कौन निकल पाए;
अगर मगर की डगर में,
डगमग सब चलता जाए;
दिग्भ्रम हुए
अकर्मण्य सभी ज्यों, भांग खाए के है बौराए;
मारे हाथ हवा में
निशदिन, पर कुछ पकड़ नही आए;
सिर पे टेक दिए रोए
मन, खुद इ ही तरस खाए;
जीवन भंगुर, दुनिया
दुखमय, कैसे कौन उपाय करूँ;
क्या हैं यहाँ जिसके
खातिर, विनती जतन हजार करूँ;
इससे बेहतर तो है मर
जाना, एक पल में सब दुख दूर करे;
लाभ हानि मद सब
पीडाओं से, ऐसे में ही मुक्त करे;
कोई कहता चल उठ
पगले! खुद से सम्भव पुरुषार्थ करे;
कोई कहता जग में आये
तो, कुछ सेवा ही निःस्वार्थ करे;
कोई कहता सब भरम
छोड़, निज आदर्श को चरितार्थ करे;
है हर्ज ही क्या ये
आकुल मन! यदि जीवन को परमार्थ करे;
कष्ट न होगा यदि
मुझको बलि वेदी पर चढ़ा दिया;
द्वेष न होगा भी
मुझको, यदि सपने मेरे जला दिया;
होगी न शिकायत भी
मुझको, गर खुशिओं पर अघात किया;
होगी ही अति प्रसन्नता
यदि, यह जीवन कोई सत्काम किया;
है महत्व नही कि
कोई, कितना लम्बा जीवन पाया;
सांसत सिसकी से भरा
सफर, आँखों से आंसू टपकाया;
महत्व है की इस विकट
सफर, कोई कैसे मंजिल पाया;
एक किरन सघन अँधेरे
से, नीरस मन को पुलकाया (हरसाया)
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