अनजान राह का भटका
मुसाफिर हूँ मै
ऐसे बिंदु पर आ गया हूँ जहाँ से
मंजिल के सारे रस्ते
बंद है
शाम का पुष्प
हँसना चाहता है पर
क्या करे?
ऐसा होना
था
खिला नही मुरझा गया!
सोचा की सुगंध
बिखेरूँगा
सब करेगे
आनंदानुभूति
पर आह! मै तो खुद को
नही
महका सका
यही कभी सुर कंठ
सुशोभित
कभी है पद से कुचला
जाता
बस इतना ही नही अभी
और है
जिन्दगी
जैसे सुबह के सूर्य
को
घेरा बादलो ने
अपरिमित
है संघर्षरत आगे बढ़ने को
कभी निकलता है उनके पंजो से
कभी हो जाता है बंद
पर बढ़ता है बढ़ता है
बढ़ता ही जाता
है
good
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