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Friday, May 10, 2019

अनजान राह का भटका मुसाफिर


अनजान राह का भटका मुसाफिर हूँ मै
ऐसे  बिंदु पर आ गया हूँ जहाँ से
मंजिल के सारे रस्ते बंद है
शाम का पुष्प हँसना  चाहता है पर
क्या करे?
ऐसा होना था
खिला नही मुरझा गया!
सोचा की सुगंध बिखेरूँगा
सब करेगे आनंदानुभूति
पर आह! मै तो खुद को नही
महका सका

यही कभी सुर कंठ सुशोभित
कभी है पद से कुचला जाता
बस इतना ही नही अभी और है
जिन्दगी
जैसे सुबह के सूर्य को
घेरा बादलो ने अपरिमित


है संघर्षरत आगे बढ़ने को
कभी निकलता है उनके पंजो से
कभी हो जाता है बंद
पर बढ़ता है बढ़ता है
बढ़ता ही जाता है 

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