गरीबों की नाजुक छाती पर,
गरीबों का गर्भा नृत्य;
गरीब की तंगहाली को,
गरीब की मजबूरी को,
सीढ़ी बनाकर,
सम्राट बनते हैं,
बादशाह बनते हैं;
भरोसा देकर,
उम्मीद के कसीदों से,
परिवर्तन का;
परिवर्तन होता भी है,
और नही भी,
पर परिवर्तन की,
विभीषिका में पिसता है,
केवल मजलूम;
चन्द फरेबी वादों पर,
न्योछावर हो जाता है,
लहू कुर्बान करता है,
सांसे भी नाम कर देता है,
मक्कार नुमाइंदों पर,
जो दिखाते तो है,
जन्नती ख्वाब,
जेहन में भर देते हैं,
हसरतें हजार,
पर हैं तो आखिर कातिल,
जिन्होंने लाशों के ढेर से गुजरता,
अट्टलिकाओं के रास्ते बनाए हैं;
वादे तो वादे ही रह जाते हैं,
लाशें इतिहास बन जाती हैं,
यादों के पन्नो से भी,
विस्मृत हो जाती हैं,
हर बार यही हुआ है,
और
यही हो रहा है;
यकीन नही तो पूछ लो,
इन गूंगे पहाड़ों से,
ओझल आसमानों से,
द्रुत गति से बहती जलधाराओं से,
जिन्होंने सबकुछ देखा है,
चुपचाप अपलक आंखों से;
रक्तपिपासु तथाकथित नुमाइंदों ने,
हर बार सौदा किया,
इस्तेमाल किया,
अपने महत्वाकांक्षाओं के लिए,
फिर बेच दिया,
सरे बाजार बेच दिया,
लहू लुहान कर दिया,
वादों को,
उम्मीदों को;
संघर्षों में, जंगी आफतों में,
जिन वसूलों का,
जिन सिद्धान्तों का,
भरपूर प्रचार किया,
स्वप्निल सुसुप्त आंखों में,
जागृत किया,
विश्वास और एहसास,
मार दिया, कत्ल कर दिया उन्हें,
दफन कर दिया,
मिटा दिया नमो निशान,
सदा के लिए,
हमेशा के लिए;
खुद खंजर बन भोंप रहा,
पहले से जख्मी लाशों को,
जिन पायदानों पर चढ़कर,
मंजिल हासिल की,
शोहरत, शक्ति और सम्पूर्ण,
संसाधन काबिज की;
पायदानों को कूड़ा कर दिया,
कूड़ेदान में,
सड़ने के लिए छोड़ दिया;
जूझ रहा है,
अब उन्ही जालिमो के कुचक्र में,
जिनकी कभी जजमानी की,
जंगे आजादी से,
आज जंगे जीवन मे फंसा दिया,
उलझा दिया,
हैवानी हरकतों,
और दानवी दांव पेंचों में;
जनसाधारण बहुत,
साधारण होता है;
पर हमेशा वही,
कुटिलों और कातिलों,
की गंदी चालों का शिकार,
एक बेसहारा, असहाय,
मजलूम उदारहण होता है;
हुआ वही,
एक बार फिर,
इस्तेमाल कर,
फेंक दिया,
बदतर, गंदे नालों में,
मरने के लिए,
सड़ने के लिए;
सब हैं बेखबर,
सब हैं रुक्सत,
उनके हालातों से,
कुचल दिया जालिम नुमाइंदों ने,
अंतिम सांस, आखिरी रूह को,
खुद अपने ही हाथों से;
मानवता लाचार हुई,
अपंग, अक्षम,
एक बार पुनः,
अपकृत्य साजिशों से,
घटिया सोच से,
खुद इंसान के हाथों,
इंसानियत की हार हूई।
गरीबों का गर्भा नृत्य;
गरीब की तंगहाली को,
गरीब की मजबूरी को,
सीढ़ी बनाकर,
सम्राट बनते हैं,
बादशाह बनते हैं;
भरोसा देकर,
उम्मीद के कसीदों से,
परिवर्तन का;
परिवर्तन होता भी है,
और नही भी,
पर परिवर्तन की,
विभीषिका में पिसता है,
केवल मजलूम;
चन्द फरेबी वादों पर,
न्योछावर हो जाता है,
लहू कुर्बान करता है,
सांसे भी नाम कर देता है,
मक्कार नुमाइंदों पर,
जो दिखाते तो है,
जन्नती ख्वाब,
जेहन में भर देते हैं,
हसरतें हजार,
पर हैं तो आखिर कातिल,
जिन्होंने लाशों के ढेर से गुजरता,
अट्टलिकाओं के रास्ते बनाए हैं;
वादे तो वादे ही रह जाते हैं,
लाशें इतिहास बन जाती हैं,
यादों के पन्नो से भी,
विस्मृत हो जाती हैं,
हर बार यही हुआ है,
और
यही हो रहा है;
यकीन नही तो पूछ लो,
इन गूंगे पहाड़ों से,
ओझल आसमानों से,
द्रुत गति से बहती जलधाराओं से,
जिन्होंने सबकुछ देखा है,
चुपचाप अपलक आंखों से;
रक्तपिपासु तथाकथित नुमाइंदों ने,
हर बार सौदा किया,
इस्तेमाल किया,
अपने महत्वाकांक्षाओं के लिए,
फिर बेच दिया,
सरे बाजार बेच दिया,
लहू लुहान कर दिया,
वादों को,
उम्मीदों को;
संघर्षों में, जंगी आफतों में,
जिन वसूलों का,
जिन सिद्धान्तों का,
भरपूर प्रचार किया,
स्वप्निल सुसुप्त आंखों में,
जागृत किया,
विश्वास और एहसास,
मार दिया, कत्ल कर दिया उन्हें,
दफन कर दिया,
मिटा दिया नमो निशान,
सदा के लिए,
हमेशा के लिए;
खुद खंजर बन भोंप रहा,
पहले से जख्मी लाशों को,
जिन पायदानों पर चढ़कर,
मंजिल हासिल की,
शोहरत, शक्ति और सम्पूर्ण,
संसाधन काबिज की;
पायदानों को कूड़ा कर दिया,
कूड़ेदान में,
सड़ने के लिए छोड़ दिया;
जूझ रहा है,
अब उन्ही जालिमो के कुचक्र में,
जिनकी कभी जजमानी की,
जंगे आजादी से,
आज जंगे जीवन मे फंसा दिया,
उलझा दिया,
हैवानी हरकतों,
और दानवी दांव पेंचों में;
जनसाधारण बहुत,
साधारण होता है;
पर हमेशा वही,
कुटिलों और कातिलों,
की गंदी चालों का शिकार,
एक बेसहारा, असहाय,
मजलूम उदारहण होता है;
हुआ वही,
एक बार फिर,
इस्तेमाल कर,
फेंक दिया,
बदतर, गंदे नालों में,
मरने के लिए,
सड़ने के लिए;
सब हैं बेखबर,
सब हैं रुक्सत,
उनके हालातों से,
कुचल दिया जालिम नुमाइंदों ने,
अंतिम सांस, आखिरी रूह को,
खुद अपने ही हाथों से;
मानवता लाचार हुई,
अपंग, अक्षम,
एक बार पुनः,
अपकृत्य साजिशों से,
घटिया सोच से,
खुद इंसान के हाथों,
इंसानियत की हार हूई।
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