अशांति है, हिंसा है,
कभी सम्पत्ति के नाम पर,
कभी आपत्ति के नाम पर;
रक्तपिपासु तलवारें खिंची हैं,
नफरत से सनी दीवारें बनी हैं;
मानवता कराह रही है,
इंसानियत अंतिम सांसे ले रही है,
अस्त्र शस्त्र, अणु परमाणु,
हथियारों और बारूदों का अंबार लगा है;
कोई रुकने को तैयार नही,
कोई झुकने को तैयार नही;
हमले के लिए आतुर,
युद्ध के लिए व्याकुल।
क्यों हो इतनी उद्धत,
औजार चलाने के लिए,
इन्सान हो, इन्सान का ही कातिल बन बैठे हो;
आखिर किस लिए,
कुछ जमीन के लिए, इंसानी सरहदों के लिए;
सत्ता लोलुप शासकों के सनक के लिए,
सीना चीर दोगे,
अपने ही जैसे किसी इन्सान का;
क्या मिल जाएगा तुम्हे,
थोड़ी शोहरत,
या साम्राज्य की सरहदें थोड़ी चौड़ी हो जाएगी;
या बिज़नेस व्यापार थोड़ा और अच्छा हो जाएगा।
इन्सान को आखिर क्या चाहिए?
दो वक्त की रोटी,
तन ढकने के लिए कपड़े;
क्यों बढ़ा रखी इतनी भूख,
इतनी इच्छाएं क्यो पाल रखी है?
क्यों किसी को मात देना चाहते हो?
क्यों प्रतिस्पर्धा करते हो किसी से,
धन के लिए, सत्ता शासन के लिए,
जमीन जायदाद समृद्धि शोहरत के लिए?
तुम्हे पता नही की,
भूख तो मिट सकती है,
पर लालच का कोई अंत नही होता;
इच्छाएं कभी खत्म नही होतीं,
एक पूरी होती है तो,
दो जन्म ले लेती हैं,
उलझकर रह जाती है हमारी जिंदगी,
इन्ही अभिलाषाओं के मकड़जाल में।
हम आकांक्षाओं महत्वाकांक्षाओं के भौचक्कर में,
उठा लेते हैं दिग्विजय और विश्वविजय का बीड़ा,
पहन लेते है परिधान,
रईसी, दम्भ और दिखावेपन का;
पाल लेते हैं दुश्मनी और दूरी की विभीषिका,
अपने मन मे, मस्तिष्क में;
कूद जातें है जंगे मैदान में,
नफरत, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा को औजार बनाकर,
झोंक देते हैं खुद को, सभी को,
हिंसा, व्यभिचार, दुराचार अशांति में।
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