अगर प्रकृति का अंधाधुन दोहन होता है,
घातक प्रतिस्पर्धा,
राक्षसीय रूप पकड़ती है;
अगर पारिस्थितिक असंतुलन बढ़ता है,
इन्सान ही इन्सान का,
भक्षण करता है।
प्रकृति का दोहन बेहिसाब नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।
अगर सम्पत्ति, समृद्धि एवं प्रसिद्धि के लिए,
आततायी बलशाली,
निर्बल पर,
बल प्रयोग करता है।
वन संपदा अकूत ऊर्जा संसाधन,
हलाहल कर,
खुद बलवान अमीर बनता है,
इन्सान जीव जन्तु को,
असहाय बेबश निरीह बनाता है।
प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रतिघात नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।
अगर विज्ञान और विकास का,
झूठा झांसा देकर,
आवोहवा जल जमीन और जीव को,
जहरीला बनाता है,
जमीदोज करता है;
गला फाड़ उन्नति का, सभ्यता का,
नारा भी देता है;
सर्वश्रेष्ठता का,
झूठा दम्भ भी भरता है।
गलतफहमी का गंदा लिबास नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।
अपने हुनर अपनी हैसियत पर,
इतना भी गुरुर न कर,
विज्ञान और विकास की विशाल वसीयत पर,
इतना मगरूर न कर।
अरबों साल की प्राकृतिक संरचना के सामने,
तेरी कुछ हजारों साल की हैसियत क्या है?
अंदाज नही तुझे,
महाप्रलय, महाविस्फोट, महाविनाश का,
सिर्फ़ इन्सान है तू,
इन्सानी हदें पार न कर;
ज्वालामुखी के मुहाने पर कदम हैं तेरे।
और तुझे तनिक भी नही है आभास;
हमे रक्त लथपथ हिज़ाब नही चाहिए।
हमे विनाशकारी आत्मघाती विकास नही चाहिए।
छोड़ दे,
अनावश्यक प्रकृति के कलेजे को छलनी करना,
असम्भव होगा बच पाना,
अगर आ गई प्रकृति अपने आप पर।
प्रकृति अगाध है, अथाह भी है,
अपराजेय है, अति विशाल भी है;
दुष्कर है टोह पाना,
इसकी गुत्थियों, इसके रहस्यों को,
अगर खूबसूरत ढाल है,
तो प्रकृति भयानक काल भी है।
जिस आँचल ने तुझे छाया दिया,
उस छाए को छलनी न कर;
जिसने तेरी भूख मिटाई,
तेरी प्यास बुझाई,
ताजी हवाओं जल जंगल से,I
मातृत्व का एहसास कराई;
उस मातृत्व की ममता को,
अपनी छुछरी हरकतों कारनामों से,
तू कतई मैली न कर।
प्रकृति की गोंद में ही,
तुझे सुख मिलेगा, चैन मिलेगा;
प्राकृतिक दिनचर्या,
सम्यक जीवन ढर्रे में ही,
स्वास्थ्य मिलेगा, सुख मिलेगा,
सब कुछ मिलेगा।
उंगली प्रकृति की, पकड़कर रखना,
ममतामयी डोर जकड़कर रखना,
इंसानी लिप्साओं,
सत्ता,समृद्धि और सुप्रसिद्धि के बावत,
प्रकृति पर दाँव मत खेलना।
याद रहे मां माफ कर देती है,
छोटी छोटी भूलों को,
पर जब सजा देती है,
तो खबर अच्छी तरह लेती है;
कम से कम इतनी होशियारी जरुर रखना,
भूल से भी छेड़ने की जुर्रत कभी मत करना।
क्योंकि प्रकृति जब सजा देगी,
सुधरने सम्भलने का भी,
मौका नही देगी;
इंसान ही हर आघाती एवं आत्मघाती करतूतों की,
गिन गिन कर बदला लेगी;
सारी नासमझी निठल्लेपन की,
बातुनी बड़बोलेपन की,
चाँद फ़तेह, मंगल फ़तेह,
समस्त ब्रह्मांड फ़तेह करने की,
साइंटिफिक सनकेपन की,
बराबर हिसाब लेगी।
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