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Friday, November 29, 2019

है वक़्त आत्म अवलोकन का



है वक़्त आत्म अवलोकन का
मनुष्यता को रौदने वालों से,
प्रिय भारत को बचाने का;

पागलों सी उमड़ी भीड़ है,
जनमानस अधिक अधीर है;
इतिहास के नाजुक मोड़ पर,
परिस्थिति बहुत गंभीर है;
दुविधा संकट डर और अकाल से,
जन जीवन को निकालने का।

रक्त पिपाशु राजाओं ने,
इस देश को बहुत बदहाल किया;
स्वार्थी सनकी सम्राटों ने,
भारत का हाल बेहाल किया;
साजिश से सनी सरकारों से,
जरूरत है राष्ट्र बचाने का।

इससे पहले इस देश में,
इतना न कभी दहशत देखा;
बेआबरू हुए इस भारत को,
ऐसे खून से लथपथ न देखा;
हो रही फजीहत फर्जीवाड़े से,
इस मुल्क का मान बचाने का।

रोटी कपड़ा और मकान की,
जनता के लिए दुश्वार हुए;
सुख समृधि सौहार्द पर,
अत्यंत प्रचण्ड प्रहार हुए;
छिन गये सकून इन छलियों से,
सब अमन चैन लौटाने का।

कहीं गोमांस तस्करी के नाम पर,
जनता आवेशित हो जाती है;
कभी मजहब मुल्ला के नाम पर,
जनता उद्द्वेलित हो जाती है;
नफरत फ़ैलाने वालों से,
इस पावन भूमि को बचाने का।

गलत हुआ सत्ता सौपा,
चालबाज चमन के चोरों को,
शक्ति सुविधा से लैश किया,
नालायक और हरामखोरों को;
है भूल बड़ी विकराल हुई,
समय है सबको समझाने का।

जाने कब कैसे क्या होगा,
बड़े संकट में भारत का भविष्य;
फरेबी वादें मक्कारों के,
काले कारनामें है बड़े रहस्य;
जनता की शक्ति है अपार,
है समय याद दिलाने का।

है खबर नही किसी को,
किस पल किसका क्या हो जाए;
विश्वास नही है तनिक भी,
जान माल भी बच पाए;
यह शैतानी संकट टल जाए,
हम सभी को अभी कुछ करने का।

एक ओर बढ़ रही भुखमरी,
एक ओर लोग आबाद हैं;
कुछ मुट्ठी भर लोगों के ऐश यहाँ,
बाकि सभी बर्बाद हैं;
चल रही चाल गहरी साजिश,
असमानता को और बढ़ाने का।

बहुभांति बहुरुपिया बनकर,
जनता की शक्ति चूस रहा,
देश धरम के भरम में फंसाकर,
हम सबको लूट खसोट रहा;
शातिर कपटी की कुटिल नीति,
सबको तंगहाली में झोंकने का।

धार्मिक विद्वेष फ़ैलाने का,
अति विकासित उनका तंत्र है;
गुंडे गुर्गे माफिया उनके,
घूमते सड़कों पर स्वतंत्र हैं;
धिनौनी घटिया हरकत इनकी,
विद्वेष में देश जलाने की।

जनता की ख़ुशी फिर लौट आए,
ऐसा कोई उपाय कहाँ;
जालिमों (दरिन्दों) से देश यह बच जाए,
ऐसा कोई सदुपाय कहाँ;
कोई बढ़िया राह निकालने का,
है समय मंथन और चिंतन का।

गर इरादे हों नेक,
तो राह निकल आते हैं;
दुर्गम पहाड़ अथाह समन्दर,
खुद रास्ते बन जाते है;
मुश्किल मंजिल पाने के लिए,
हमे हाथ से हाथ मिलाने का।

यह देश है हम सभी का,
किसी के बाप की जागीर नही;
चन्द हैवान और बहशी लोगों के,
यह देश हाथों की लकीर नही;
जनता ही जनार्दन होती है,
उपयुक्त वक्त है बताने का।

आप आप बचने के खेल में,
मतियामेल सब होता जा रहा;
जन विद्रोह करने की ताकत भी,
हर रोज घटता जा रहा;
एकाकी लड़ने (बचने) से कुछ न होगा,
है वक्त समेकित हो जाने का।

दुश्मन हमसे है दूर खड़ा,
हम एक दूजे के दुश्मन बन जाते हैं;
न समझ बे अक्लो की तरह,
हम आपस में ही भिड़ जाते हैं;
बारी बारी से वो खत्म करेगा,
है वक्त अभी संभल जाने का।

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