मैं एक सिपाही हूँ।
सेवा करता हूँ,
अपने देश की,
हिफाजत करता हूँ,
अपनी माटी की,
अस्मिता के लिए रहता हूं,
सदैव तत्पर,
जान की बाजी भी लगा देता हूँ,
देश का मान गौरव बढ़ाने के लिए,
बचाने के लिए,
क्योंकि,
मेरा देश,
मेरी माटी,
मेरे जान से ज्यादा प्यारी है,
न्योछावर कर सकता हूँ,
अपना जीवन,
सौ नही हजार बार,
मेरा मुल्क,
मेरा वतन,
मेरा अभिमान है,
मेरी दुलारी है।
पर कभी कभी सोचता हूँ,
क्या वास्तव में,
मैं देश सेवा करता हूँ,
माटी की हिफाजत करता हूँ?
या फिर देश और माटी के नाम पर,
सनकी शासको,
अन्यायी राजाओं महाराजाओं,
की चाकरी करता हूँ,
और बड़े गफलत में रहता हूँ
कि मैं माटी और देश की,
रक्षा करता हूँ।
कुर्सी धारियों के,
बहसी बकवास इरादों,
जुमले व फ़र्ज़ी वादों,
की चक्की में पिसता हूँ,
उन्ही की चिल्ली सपनों को,
देश का आदेश मानकर,
जान की बाजी लगा देता हूँ,
सोचता हूँ,
देश सेवा कर रहा हूँ।
कुर्सीधारी खुद देश बन जाते हैं,
देश बनकर,
मन के घोड़े दौड़ाते हैं,
फरमान हुक्म चलाते हैं,
सिपाही इनके हुक्म को,
इनके आदेश को,
देश और माटी की सेवा समझकर,
जान कुर्बान कर देता है।
देश और माटी की सेवा,
परम् है महान है,
सर्वोत्तम पुनीत स्वाभिमान है,
स्वर्ग से भी श्रेयस्कर,
पुण्य है,
पावन धाम है,
पर अकलान्ध और हब्शी शासको के,
मनमानी अध्यादेशों के लिए,
कुर्बान होना,
जान देना,
क्या देश सेवा है?
क्या माटी की हिफाजत है?
जब सनकी शासक,
अत्याचार करता है,
अन्याय करता है,
लूटता है,
देश को बर्बाद करता है,
फिजूल के फासलों से,
देश खस्ताहाल एवं तंगहाल करता है,
एक के बाद एक,
भ्रष्टाचार करता है,
जनता के साथ,
बुरा व्यवहार करता है,
जनता जब विरोध करती है,
विद्रोह करती है,
तो मुझको इस्तेमाल करता है,
देश के नाम पर,
देश की हिफाजत के नाम पर।
दुविधा अपार है,
क्या उचित है क्या अनुचित?
हां गृहस्थी के अर्थ भी तो चाहिए,
देश गृहस्थी और सुविधा से बढ़कर है,
वास्तव में देश और गृहस्थी की बात होगी,
तो मैं देश चुनूँगा,
पर देश और सनकी शासको को चुनना हो
तो मैं क्या करूँ,
किसे चुनूँ,
दुविधा है कि,
कौन समझेगा इस अवस्थिति को,
लोग तो शासक को देश,
देश को शासक मान बैठते हैं,
शासक का अपमान,
देश का अपमान समझते हैं,
शासक की रक्षा ही,
देश की रक्षा समझते हैं।
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