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Wednesday, February 2, 2022

कर्म ही पूजा है।

मोबाइल स्क्रीन पर जैसे ही 4.30 टिक-टिक हुआ, मन मस्तिष्क में ऑफिस से लौटने के ख्याल घूमने लगे। वैसे भी जनवरी के अंत आते-आते दिन की लंबाई सूत भर ही बढ़ती है। 

शाम का आगमन होने ही वाला था। बस किसी तरह रजिस्टर पर बेशकीमती हस्ताक्षर झटपट उकेर दे और रास्ता नापें। पर कोई आसान थोड़े ही था। अभी तो पार करना था विंध्याचल। साहब को रिझाना कोई बच्चों का खेल नही। 
इसी विचार से बैठा आमने सामने। साहब की हल्की फुल्की चापलूसी और सहकर्मियों की ढेर सारी खामियां चुटकी में गिना डाली, एक सांस में।

साहेब को मूड देख रजिस्टर आहिस्ता खिसकाया और घर्र से हस्ताक्षर चेप दिया। फिर फर्राटा निकला कहीं साहेब की पुकार न आ जाए।

मुख्य द्वार को लाँघते ही वही ख्याल घूमने लगा कि सीधे प्लाट पर जाना है। फटाफट फोन मिलाया अमित बाबू को।
'कहाँ हो अभी' ताबड़तोड़ अंदाज में मैने बोला।
'प्लाट पर' अमित बाबू अपने जाने माने सुस्ताने अंदाज में बोले।
'फिर आ जाओ चौराहे पर' दबंगई में मैने बोला।
'ठीक है' शालीनता का अद्भुत परिचय देते हुए अमित बाबू बोले।

अमानी पर तो मिस्त्री लोग 5.00 बजे तक बैग पैक कर लेते हैं और ठेके पर तो 6.00 बजे तो कभी 6.30 तक लगे रहते हैं। दूसरे मंजिल की शटरिंग लगनी है तो फिर देर तक काम चलेगा। आज कितना काम हुआ? आज का काम कैसा होगा? कैसा दिखेगा? यह जानने जिज्ञासा और उत्सुकता सदैव बनी रहती है।

यही सब मन मे गूथते सरपट आगे बढ़ता जा रहा। गंगा ब्रिज पैदल पर कर, थाने से विक्रम लेकर चौराहे पर पहुँच गया। अमित बाबू पहले से ही इंतजार कर रहे थे, और मोटर साइकिल का धुंआ निकाल रहे थे। चौराहा पार कर झपक से बैठ गया पीछे और सटाक से पहुंच गया प्लाट।

अमित बाबू गाड़ी धीमी किए और मैं झप्प से उतरा सीधे छत पर पहुँचा। जैसे कोई मेरा बेसब्री से इंतजार कर रहा हो या मुझे किसी को देखने की महा जल्दी हो।

'नमस्ते सर' जानी पहचानी, प्रत्याशित मिस्त्री की आवाज कानो तक पहुंची। मन्द मुस्कान और सरलता से मैंने नमस्ते का जबाव दिया। आगे बढ़ते गए।

'मिस्त्री कहाँ हो? दिखाई नही दे रहे हो' मैंने पूछा।
'इहाँ हूँ सर, मेहराब बना रहा हूँ' मिस्त्री ईंट के जाल के पीछे से सिर उठाते हुए ऊंची आवाज में बोले।
चारों तरफ से लगी बाँस बल्लियों को बचाते पहुँचा मिस्त्री के पास। ऐंड बेंड करते लपाक से मैं भी चढ़ गया चहली पर।
'सर आप उतर जाइए'। मिस्री ने बोला।
'क्यों क्या हुआ' मैने उत्सुकता बश पूछा।
'सर, आप गिर जाओगे,  चहली टूट सकती है' मिस्त्री ने बोला।
मैं झटपट नीचे उतर गया।
ईंटों की जाल के अर्धगोले के ऊपर गीली मिट्टी का लेप। भूरे जैकेट, झीने पायजामें, गीले मिट्टी से सने हाथ से लपालप लेपे जा रहे। अर्धगोले के आधे तो लेप हो गया और बचा था उसका आधा। सूत की करिश्माई कमाल तो सिर्फ मिस्त्री ही समझ सकता है। कभी कन्नी से गीली सनी मिट्टी तसले से दो चार मर्तबा उठाता और फिर निगाहें गड़ाए सूत चलाता।

मिस्त्री तो ईंट गारे के काम पसन्द लोग होते हैं। कन्नी बसली का इनका गहरा रिश्ता होता है। सनी मिट्टी में हाथ लबोरे चपाचप कन्नी चलाये जा रहे हैं। कभी कन्नी तो कभी कभी सूत। बीच बीच मे तसले से मिट्टी। ध्यान तो बिल्कुल बगुले जैसी। मजाल है कोई सूत रत्ती भर दाएं बाएं हो जाये। कभी आगे झुककर तो कभी थोड़ा पीछे मुड़कर आँख गड़ाए जा रहे मानो ताजमहल की सलीक संरचना बनाई जा रही हो। न कपड़े का मिट्टी से गंदे होने की खबर और न ही कोई घिन्न।

इतनी तत्परता और तल्लीनता। बिल्कुल ध्यानमग्न और कार्यकेन्द्रित। चहली पर मन्द चहलकदमी बिल्कुल चींटी की चाल माफित। सूत से इतनी मोहब्बत और कन्नी से इतना प्यार। फिकर इतनी कि राई भर भी अर्धवृत्त बेडौल न हो जाय। दोनों हाथ भरकर सनी मिट्टी उठाना, फिर लेपना और कन्नी से लेवल करना। सबसे महत्वपूर्ण कि सूत से पेंडुलम जैसे कभी दाएँ तो कभी बाएं घुमाना। इतनी आश्वास कार्यमग्नता मैंने तो पहली बार देखी।

लगभग तीन महीने से निर्माण कार्य चल रहा था। मुश्किल से ही कोई दिन होगा जब मैं प्लाट नही गया। गपशप के साथ तकनीकी चर्चा करता। अपने ख्वाबी ख्यालो से मिस्त्री को तंग भी करता कि 'यहाँ ऐसे हो सकता है वहाँ ऐ कर दो तो अच्छा होगा'। कुछेक मौके पर तो बनी दीवाल को गिरवाया भी बड़े आत्मविश्वास से। मिस्त्री तिलमिलाता और झल्लाता। पर हंसमुख अंदाज में कहता 'सर मेरा बहुत नुकसान हो जाएगा, घर से पैसा देना पड़ जायेगा'। 

'कोई नही, थोड़ा मैनेज करो, तुम्हें घाटा नही होगा, फिकर न करो' ऐसा कुछ मेरी जबान से निकलता।

पर कभी ऐसा न हुआ कि मिस्त्री के काम का इतना असर हुआ हो। अब सामने तो बखान कर नही सकता था। कहीं मिस्त्री आसमान पर न चढ़ जाय। बजाय इसके मैंने अमित बाबू को थोड़ा दूर ले गया और फुसफुसाया 'देखो अमित बाबू, ऐ होता है काम के प्रति निष्ठा और ईमानदारी। इसी को कहते हैं कर्तव्य परायणता। देखो मिस्त्री कितना लग के काम कर रहा है, मिट्टी दोनों हाथ भरके उठा रहा है जबकि मिस्त्री का मिट्टी का नही है। इसकी खबर बराबर है कि कहीं रूप कुरूप न हो जाय'।
आगे अमित बाबू को फिलॉसफी झाड़ते हुए मैंने बोला, 'इसी को कहते हैं कर्म ही पूजा है, कार्य ही धर्म और सच्ची भक्ति है'।

आज मिस्त्री ने दिल जीत लिया। उसके काम ने अक्सर ही मन को भाया पर आज मुक्तकंठ से प्रसंशा करने का जी हो रहा था।

मैंने शाबाशी देने का नया रास्ता निकाला और मिस्त्री से बोला, 'मिस्त्री, बताओ क्या खाओगे?'
मिस्त्री भी जैसे इंतजार में था और झट से बोला, 'यहाँ कहाँ खाएंगे, यहाँ तो कुछ नही मिलेगा, चलिए गंगाराम पर'।

फिर मैं, मिस्त्री और अमित बाबू गंगाराम पर छोले दही डाल कर दो-दो समोसे चाव से निपटाए और स्वादिष्ट गर्म चाय पिए।
फिर निकल गए अपने-अपने आशियाने।
बाइक पर पीछे बैठे अमित बाबू को पुनः फिलॉसफी झाड़ने लगा। वैसे भी गारे बगाहे फिलॉसफी झाड़ता ही रहता हूँ। आज तो फिलॉसफी के दिव्यदर्शन हुए चक्षु को। 

'अमित बाबू, इसी को कहते हैं कार्य के प्रति ईमानदारी, काम कुछ भी हो, पर जो काम करो, पूरे मन से करो, पूरी निष्ठा से करो, कर्म ही पूजा है'। मन्द स्वर में बिल्कुल कान के इर्द गिर्द मैंने बोला।

अमित बाबू के जाने पहचाने हाँ और हूँ जैसे जबाव के साथ पहुँच गए अपने ठिकाने।

1 comment:

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति। मिस्त्री को इससे बड़ा इनाम कुछ नहीं हो सकता।

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