शहर में इतना सन्नाटा क्यों है!
सबकुछ मृतप्राय सा है,
श्मशान सा है;
इन्सान अतीव हतप्रभ,
असहाय सा है;
निरीह है, निर्बल है,
किंकर्तव्यविमूढ़, अति दुर्बल सा है।
किसी अंजान डर के आहट से,
इन्सान सहम जाता क्यों है!
शहर में इतना सन्नाटा क्यों है!
सुदूर तक,
कोई आवाज नही आ रही;
सच के लिए, इंसानियत के लिए,
कोई फरियाद भी नही उठ रही है;
दम घुट रहा है मानवता का,
क्योंकि कहीं कोई आस भी, नही दिख रही है।
इन्सान मरने के पहले ही,
यूँ बेवजह मर जाता क्यों है!
शहर में इतना सन्नाटा क्यों है!
जीवन्त अन्दाज,
कहीं गुम सा हो गया;
खिलखिलाहट, अल्हड़ता को छोड़,
गुमशुम सा हो गया;
वो बेपरवाह खयालात, खुशियों से दूर,
तन्हा मायूस सा हो गया।
अंधड़ की जरा सी झूंक से,
अब इतना घबराता क्यों है!
शहर में इतना सन्नाटा क्यों है!
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