है
वक़्त आत्म अवलोकन का
मनुष्यता को रौदने
वालों से,
प्रिय भारत को बचाने
का;
पागलों सी उमड़ी भीड़
है,
जनमानस अधिक अधीर
है;
इतिहास के नाजुक मोड़
पर,
परिस्थिति बहुत
गंभीर है;
दुविधा संकट डर और
अकाल से,
जन जीवन को निकालने
का।
रक्त पिपाशु राजाओं
ने,
इस देश को बहुत
बदहाल किया;
स्वार्थी सनकी
सम्राटों ने,
भारत का हाल बेहाल
किया;
साजिश से सनी
सरकारों से,
जरूरत है राष्ट्र
बचाने का।
इससे पहले इस देश
में,
इतना न कभी दहशत
देखा;
बेआबरू हुए इस भारत
को,
ऐसे खून से लथपथ न
देखा;
हो रही फजीहत
फर्जीवाड़े से,
इस मुल्क का मान
बचाने का।
रोटी कपड़ा और मकान
की,
जनता के लिए दुश्वार
हुए;
सुख समृधि सौहार्द
पर,
अत्यंत प्रचण्ड
प्रहार हुए;
छिन गये सकून इन
छलियों से,
सब अमन चैन लौटाने
का।
कहीं गोमांस तस्करी
के नाम पर,
जनता आवेशित हो जाती
है;
कभी मजहब मुल्ला के
नाम पर,
जनता उद्द्वेलित हो
जाती है;
नफरत फ़ैलाने वालों
से,
इस पावन भूमि को
बचाने का।
गलत हुआ सत्ता सौपा,
चालबाज चमन के चोरों
को,
शक्ति सुविधा से लैश
किया,
नालायक और हरामखोरों
को;
है भूल बड़ी विकराल
हुई,
समय है सबको समझाने
का।
जाने कब कैसे क्या
होगा,
बड़े संकट में भारत
का भविष्य;
फरेबी वादें
मक्कारों के,
काले कारनामें है
बड़े रहस्य;
जनता की शक्ति है
अपार,
है समय याद दिलाने
का।
है खबर नही किसी को,
किस पल किसका क्या
हो जाए;
विश्वास नही है तनिक
भी,
जान माल भी बच पाए;
यह शैतानी संकट टल
जाए,
हम सभी को अभी कुछ
करने का।
एक ओर बढ़ रही
भुखमरी,
एक ओर लोग आबाद हैं;
कुछ मुट्ठी भर लोगों
के ऐश यहाँ,
बाकि सभी बर्बाद
हैं;
चल रही चाल गहरी
साजिश,
असमानता को और बढ़ाने
का।
बहुभांति बहुरुपिया
बनकर,
जनता की शक्ति चूस
रहा,
देश धरम के भरम में
फंसाकर,
हम सबको लूट खसोट
रहा;
शातिर कपटी की कुटिल
नीति,
सबको तंगहाली में
झोंकने का।
धार्मिक विद्वेष
फ़ैलाने का,
अति विकासित उनका
तंत्र है;
गुंडे गुर्गे माफिया
उनके,
घूमते सड़कों पर
स्वतंत्र हैं;
धिनौनी घटिया हरकत
इनकी,
विद्वेष में देश जलाने
की।
जनता की ख़ुशी फिर
लौट आए,
ऐसा कोई उपाय कहाँ;
जालिमों (दरिन्दों)
से देश यह बच जाए,
ऐसा कोई सदुपाय
कहाँ;
कोई बढ़िया राह
निकालने का,
है समय मंथन और
चिंतन का।
गर इरादे हों नेक,
तो राह निकल आते
हैं;
दुर्गम पहाड़ अथाह
समन्दर,
खुद रास्ते बन जाते
है;
मुश्किल मंजिल पाने
के लिए,
हमे हाथ से हाथ
मिलाने का।
यह देश है हम सभी
का,
किसी के बाप की
जागीर नही;
चन्द हैवान और बहशी
लोगों के,
यह देश हाथों की
लकीर नही;
जनता ही जनार्दन
होती है,
उपयुक्त वक्त है बताने
का।
आप आप बचने के खेल
में,
मतियामेल सब होता जा
रहा;
जन विद्रोह करने की
ताकत भी,
हर रोज घटता जा रहा;
एकाकी लड़ने (बचने)
से कुछ न होगा,
है वक्त समेकित हो
जाने का।
दुश्मन हमसे है दूर
खड़ा,
हम एक दूजे के
दुश्मन बन जाते हैं;
न समझ बे अक्लो की
तरह,
हम आपस में ही भिड़ जाते हैं;
बारी बारी से वो
खत्म करेगा,
है वक्त अभी संभल
जाने का।
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