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Monday, November 25, 2019

भारत की दुर्दशा




भारत तेरी भूमि का, कैसा नजारा हो गया;
नफरतो के शहर सा, ये देश सारा हो गया।

चिलचिलाती धूप, गन्दी नालियों में जी रहे;
चीथड़े तन पर, जिन्दा लाश बनकर रह गये;
बेजुबां इन्सान तेरा, बेसहारा हो गया।

जातियों का दर्द, कहीं धर्म का आतंक है;
समन्तियों के कहर की, कहानियाँ अनंत हैं;
जालिमों के जुल्म से, जन जन बेचारा हो गया।

आदमी की जान, जानवरों से भी घट गई;
जातियों और धर्म में, ये कौम सारी बंट गई;
चिंगारियों की लपट में, ये मुल्क सारा हो गया।

कुर्सियों के जंग में, जालिमों को प्रश्रय मिला,
दंगाइयों भ्रष्टाचारियों, बलात्कारियों को सह मिला;
कातिलों के कब्जे में, ये देश सारा हो गया।

नानक कबीर बुद्ध ने, जिस राष्ट्र को बनाया;
त्याग और बलिदान से, इस देश को सजाया;
भेड़ियों से देश का, बेडा गर्त सारा हो गया।

झूठ और फरेब का, कैसा बवाला हो गया;
गुमराह और गुलामी का, गड़बड़ घोटाला हो गया;
मक्कारियों के गिरफ्त में, ये देश सारा हो गया।

मासूम मुस्कराहटों पर, ग्रहण कोई लग गया;
अल्हड अट्ठहासों पर, नजर जैसे लग गया;
दरिन्दों के दहशत में, ये देश सारा हो गया।

चाहता हूँ देश की, आबोहवा फिर महकाऊं;
नफरतों के परे, नई तहजीब बनाऊं;
इंसानियत इस मुल्क में, मकसद हमारा हो गया।

19.08.2019

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