भारत तेरी भूमि का, कैसा नजारा हो गया;
नफरतो के शहर सा, ये
देश सारा हो गया।
चिलचिलाती धूप,
गन्दी नालियों में जी रहे;
चीथड़े तन पर, जिन्दा
लाश बनकर रह गये;
बेजुबां इन्सान तेरा,
बेसहारा हो गया।
जातियों का दर्द,
कहीं धर्म का आतंक है;
समन्तियों के कहर की,
कहानियाँ अनंत हैं;
जालिमों के जुल्म से,
जन जन बेचारा हो गया।
आदमी की जान,
जानवरों से भी घट गई;
जातियों और धर्म में,
ये कौम सारी बंट गई;
चिंगारियों की लपट
में, ये मुल्क सारा हो गया।
कुर्सियों के जंग
में, जालिमों को प्रश्रय मिला,
दंगाइयों
भ्रष्टाचारियों, बलात्कारियों को सह मिला;
कातिलों के कब्जे
में, ये देश सारा हो गया।
नानक कबीर बुद्ध ने,
जिस राष्ट्र को बनाया;
त्याग और बलिदान से,
इस देश को सजाया;
भेड़ियों से देश का,
बेडा गर्त सारा हो गया।
झूठ और फरेब का,
कैसा बवाला हो गया;
गुमराह और गुलामी का,
गड़बड़ घोटाला हो गया;
मक्कारियों के
गिरफ्त में, ये देश सारा हो गया।
मासूम मुस्कराहटों
पर, ग्रहण कोई लग गया;
अल्हड अट्ठहासों पर,
नजर जैसे लग गया;
दरिन्दों के दहशत
में, ये देश सारा हो गया।
चाहता हूँ देश की,
आबोहवा फिर महकाऊं;
नफरतों के परे, नई
तहजीब बनाऊं;
इंसानियत इस मुल्क
में, मकसद हमारा हो गया।
19.08.2019
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