मनुष्य भावनावों का पुंज है-पक्ष में
आदमी हाड मास का पुतला है
और इस हाड मास से बहती है भावनावो का का अपार बेग, जिसमे है प्यार , डर और क्रोध|
अरस्तू ने उचित ही कहा कि ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है|’ और निश्चित रूप से समाज
का निर्माण और निरंतर विकास के पीछे मनुष्य के अंदर स्वाभाविक रूप से पाई जाने
वाली भावनाये ही है|
और यह सबको विदित है कि
बिचार तर्क और विश्लेषण की कसौटी पर तौल कर अपना रूप प्राप्त करता है| और सबको यह
भी ज्ञात होगा कि तर्क हमेशा नीरस और आनंदहीन होता है दूसरी तरफ भावना मनुष्य का
स्वाभाविक प्रवृति होती है जो बहुत कोमल, सरस,,आनंद दाई होती है|
अगर हम ये कहे कि मनुष्य की
भावनाये ही समाज के विकास के प्रथम सोपान है जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के करीब
लाने की प्रेरक शक्ति है| वही शुरू होता है समाज निर्माण की प्रक्रिया,,जिसे कहते
विशाल और सभ्य मानव समाज| समाज के विकास की
मूल है मनुष्य की भावनाये |
हम एक परिवार का उदाहरण
लेते है ,,परिवार में लोगो का एक दूसरे का लगाव भावनात्मक होता है,, यह भावनात्मक
प्रेम माँ बेटे के बीच ,बहन भाई के बीच,पति पत्नी के बीच स्पष्ट रूप से देखा जा
सकता है| माँ की लोरियाँ के मीठे बहाव में कैसे बच्चा नींद लेता है और माँ अद्भुत
आनंद अनुभूति करती है| बच्चे की किलकारी पर माँ कैसे मन मुदित होती है| और जब
बच्चा रोता है माँ का कलेजा तदपने लगता है,,,आखिर यह भावना नहीं तो क्या है| बेटे
की शरारत और नटखट पर कैसे माँ क्रोधित होती है और जब बच्चा रोने लगता है तो वही
माँ उसे दुलारने लगती है| शायद भावना नहीं होती है तो हम उसे एक परिवार का दर्जा
कभी नहीं दे पाते| भावना है तभी परिवार है| और भावनात्मक लगाव के आभाव में परिवार
में हमेशा टकराव और बिखराव के स्थिति बनी रहती|
हम अपनी हंसी खुसी तथा भावनाये
केवल परिवार तक ही सीमित नहीं रखते वरन यह पूरी मानवता के रग रग में समाई हुई है|
यही वजह जब पास पड़ोस में किसी खुसी का माहौल होता है तो उसकी खुसी हम भी बाटते
है,,,और दुःख में भी उनके साथ रहते और यथा संभव मदद भी करते है|हाँ झगड़े भी होते
है पर वह भी भावना ही है,,जो ईर्षा और नफ़रत से जुडी हुई है| जिससे हमें क्रोध आता
है| यही नहीं जब जापान में सुनामी का कहर बरसता है,इसराइल में बम विस्फोट होता है,
असम् में बाढ़ आती है और गुजरात में भूकंप तो क्या उनकी दयनीय दशा देख कर हमारे
आँखे नाम नहीं हो जाती| हमें बिलकुल वैसा लगता है जैसे की वह मुसीबत क्खुद अपने
ऊपर पडी हो|
कुछ लोग यह कह सकते है कि
मनुष्य में भावनाये नहीं बल्कि बिचार और तर्क शक्ति होती है जिसके जरिये आज विकास
की उचाईयों को छू रहा है पर वो शायद वो यह भूल जाते है कि बिचार हमारे अंदर मूल
रूप से नहीं आते ,,,मूल रूप से वे कल्पना के परिष्कृत रूप होते है,,,और हमारी
कल्पना हमारी स्वाभाविक भावनावो से प्रभावित होती है,,,जैसे प्रेम,,डर,,क्रोध
इत्यादि| जिसकी भावनाये जितनी प्रबल होती है उसकी बिचार और तर्क शक्ति उतनी मजबूत
होती है| इसका सीधा मतलब यही कि मनुष्य के विकास के पीछे मूल रूप से भावनाये ही
उतरदायी है| और मनुष्य के द्वारा किये गए किसी भी विकास का उद्देश्य मानव कल्याण
रहा है ,,जिससे मनुष्य एक सफल और सुगम्य जीवन बिता सके|
अगर आज हम वैश्विक धरातल पर
देखे तो हमें ये पता चलेगा मनुष्य चाहे जिस भूभाग का हो ,,जिस जाति का हो,,जिस
भाषा का हो.,जिस रंग का हो,,पर भावनाये सबमे एक सी है,,रोना हसना,,या क्रोध
करना,,या फिर प्रेम करना,,शायद मानव प्रेम का ही जज्बा था जिससे ‘विश्व वन्धुत्व
और वसुधैव कुटुम्बकम जैसे नारे लगाये गए| सयुंक्त राष्ट्र संघ में मानव अधिकारों
की चर्चा की गयी| विश्व शांति के प्रयास किये गए और समय समय पर इसके लिए वैश्विक
सम्मेलनों का आयोजन किया गया और अन्यान्य अन्तराष्ट्रीय संगठन बनाये गए| जिससे हर
देश एक दूसरे देश को आपसी सहयोग और सद्भाव से यथा संभव मदद कर सके|
मै यह भी मानता हूँ कि
मनुष्य का आधुनिक में प्रवेश और अनेको साहसिक कार्य जैसे अंतरिक्ष की यात्रा
,,समुद्र में गोताखोरी और विशाल पर्वतो की चढाई के पीछे उसकी प्रबल भावना का ही
हाथ है क्योकि हे कार्य किसी भी पल जीवन जाने के खतरे से जुदा हुआ है और व्यक्ति
सब से जादा मरने से डरता है,,पर मरने का उसके अंदर तर्क बनाता है जिससे वह मौत का
खौफनाक मानसिक चित्र बनाता है फिर वह येसे दुरूह कार्य को तिलांजलि दे देता है पर
भावना और तीब्र आवेग में किसी भी खतरे को सोचे बिना वह कार्य पर चलता जाता है|
आत्म हत्या करना इसका ज्वलंत उदाहरण है,,,जो व्यक्ति विचार और तर्क से नहीं वरन
भावना के प्रबल वाहव से करता है| और आज के विभिन्न देशो में हुए शोध से भी यह पता
चलता है कि आधुनिक युग में मानक के आत्म हत्या की प्रवृति तेजी से बढ़ रही है|
हमारे धर्म ग्रंथो और वेदों
में मानव जीवन के प्रत्याशित सौ साल की आयु को चार आश्रमो में बाटा गया जिसमे
गृहश्त जीवन को सर्व श्रेष्ठ माना गया, क्योकि यह हमें पितृ ऋण से मुक्ति दिलाता
है जिसका आशय है कि पुत्र उतपन्न कर समाज की निरंतरता बनाई रखी जाय| और गृहस्त
आश्रम में हम सांसारिक जीवन जीते है जो हमारी भावनावो से प्रेरित होती है- जैसे
लोभ, लालच,,ईर्षा,,प्रेम,,सहयोग,,भय,,हसना और रोना जैसी जीवन निर्वाह करते है|
कवियों ने भी भावना का खूब
यश गया जैसे-
जो भरा नहीं है भावों से
जिसमे बहती रसधार नहीं
ह्रदय नहीं वह पत्थर है
,जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं|
क्या मीरा का कृष्ण के
प्रति कोई भाव नकार सकता है जब वो कहती है कि ‘मेरो तो गिरिधर गोपाल दूसरों न कोई’
और कृष्ण का सुदामा के स्वागत में नंगे पांव व्याकुल हो होकर दौडाना और फिर आसुवों
से बिवाई भरे पैर को धुलना नकार सकता है,,क्या यशोदा माँ का वात्सल्य प्रेम और
गोपिकयों का दैवीय लगाव कोई भुला सकता है| यही नहीं सबरी का प्रभु श्रीराम को जूठे
बेर खिलाना और भगवन राम का सप्रेम जूठे बेर खाना कोई भुला सकता है,, ऋषि बाल्मीकि
और तुलसी दास जी का पत्नी प्रेम और फिर मोह भंग ,तदुपरांत प्रभु की भक्ति कोई भूला
सकता है ,,कभी नहीं,,और इस सबके पीछे सिर्फ और सिर्फ प्रबल भावनाये ही है|
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