मौलिक अधिकार भारत के संविधान के भाग 3 (अनुच्छेद 12 से 35) वर्णित भारतीय नागरिकों को प्रदान
किए गए वे अधिकार हैं जो सामान्य स्थिति में सरकार द्वारा सीमित नहीं किए जा सकते
और जिनकी सुरक्षा का प्रहरी सर्वोच्च न्यायालय हैं।
ये अधिकार "मौलिक" के रूप में जाने जाते हैं क्योंकि ये सभी प्रकार के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, जैसे कि भौतिक, बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक, और इन्हें देश के मौलिक कानून यानी संविधान द्वारा सुरक्षित किया गया है। यदि संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकार, विशेष रूप से मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय अनुच्छेद 32 और 226 के तहत वारंट (रिट) जारी कर सकते हैं, जो राज्य मशीनरी को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए निर्देशित करते हैं।
समानता का अधिकार
अनुच्छेद 14 से 18 के अंतर्गत निम्न अधिकार कानून के समक्ष समानता
संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से उद्धृत है।
1.
कानून के समक्ष समानता।
2.
जाति, लिंग, धर्म, तथा मूलवंश के
आधार पर सार्वजनिक स्थानों पर कोई भेदभाव करना इस अनुच्छेद के द्वारा वर्जित है।
लेकिन बच्चों एवं महिलाओं को विशेष संरक्षण का प्रावधान है।
3.
सार्वजनिक नियोजन में अवसर की समानता प्रत्येक नागरिक
को प्राप्त है परंतु अगर सरकार जरूरी समझे तो उन वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान
कर सकती है जिनका राज्य की सेवा में प्रतिनिधित्व कम है।
4.
इस अनुच्छेद के द्वारा अस्पृश्यता का अंत किया गया है
अस्पृश्यता का आचरण कर्ता को ₹500 जुर्माना अथवा 6 महीने की कैद का प्रावधान है। यह प्रावधान भारतीय संसद
अधिनियम 1955 द्वारा जोड़ा गया।
5. इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई उपाधियों का अंत कर दिया गया। सिर्फ शिक्षा एवं रक्षा में उपाधि देने की परंपरा कायम रही।
स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद (19-22) के अंतर्गत भारतीय नागरिकों को निम्न अधिकार प्राप्त हैं-
1.
वाक-स्वतंत्रता(बोलने की स्वतंत्रता) आदि विषयक कुछ
अधिकारों का संरक्षण। जमा होने, संघ या यूनियन
बनाने, आने-जाने, निवास करने और
कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्यवसाय करने की स्वतंत्रता का अधिकार।
2.
अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण।
3.
प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण।
4.
शिक्षा का अधिकार
5.
कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण।
इनमें से कुछ
अधिकार राज्य की सुरक्षा, विदेशी राष्ट्रों के साथ भिन्नतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और
नैतिकता के अधीन दिए जाते हैं।
अनुच्छेद (23-24) के अंतर्गत निम्न अधिकार वर्णित हैं-
1.
मानव और दुर्व्यापार और बालश्रम का निषेध।
2.
कारखानों आदि में 14 वर्ष तक बालकों
के नियोजन का निषेध।
3. किसी भी प्रकार का शारीरिक या मानसिक शोषण निषेध।
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद(25-28) के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित हैं, जिसके अनुसार नागरिकों को प्राप्त है-
1.
अंत:करण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता। इसके अन्दर सिक्खों को
किरपाण (तलवार) रखने की आजादी प्राप्त है -
2.
धार्मिक कार्यों के प्रबंध व आयोजन की स्वतंत्रता।
3.
किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के
संप्रदाय के बारे में स्वतंत्रता।
4.
कुछ शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक
उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता।
संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार
अनुच्छेद(29-30) के अंतर्गत प्राप्त अधिकार-
1.
किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्कृति सुरक्षित
रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने का अधिकार।
2.
अल्पसंख्यक-वर्गों के हितों का संरक्षण।
3.
शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों
का अधिकार
कुछ विधियों की व्यावृत्ति
अनुच्छेद(32) के अनुसार कुछ विधियों के व्यावृत्ति का प्रावधान किया गया
है-
1.
संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों
की व्यावृत्ति।
2.
कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यीकरण।
3.
कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की
व्यावृत्ति।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
डॉ॰
भीमराव अंबेडकर ने संवैधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद 32-35) को 'संविधान का हृदय और आत्मा' की संज्ञा दी थी।[12] सांवैधानिक उपचार
के अधिकार के अन्दर ५ प्रकार के प्रावधान हैं-
1.
बन्दी प्रत्यक्षीकरण : बंदी प्रत्यक्षीकरण द्वारा किसी भी गिरफ़्तार व्यक्ति को
न्यायालय के सामने प्रस्तुत किये जाने का आदेश जारी किया जाता है। यदि गिरफ़्तारी
का तरीका या कारण ग़ैरकानूनी या संतोषजनक न हो तो न्यायालय व्यक्ति को छोड़ने का
आदेश जारी कर सकता है।
2.
परमादेश : यह आदेश उन
परिस्थितियों में जारी किया जाता है जब न्यायालय को लगता है कि कोई सार्वजनिक
पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है और इससे
किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है।
3.
निषेधाज्ञा : जब कोई निचली
अदालत अपने अधिकार क्षेत्र को अतिक्रमित कर किसी मुक़दमें की सुनवाई करती है तो
ऊपर की अदालतें उसे ऐसा करने से रोकने के लिए 'निषेधाज्ञा या
प्रतिषेध लेख' जारी करती हैं।
4.
अधिकार पृच्छा : जब न्यायालय को
लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिस पर उसका कोई कानूनी
अधिकार नहीं है तब न्यायालय 'अधिकार पृच्छा
आदेश' जारी कर व्यक्ति को उस पद पर कार्य करने से रोक देता
है।
5.
उत्प्रेषण रिट : जब कोई निचली
अदालत या सरकारी अधिकारी बिना अधिकार के कोई कार्य करता है तो न्यायालय उसके समक्ष
विचाराधीन मामले को उससे लेकर उत्प्रेषण द्वारा उसे ऊपर की अदालत या सक्षम अधिकारी
को हस्तांतरित कर देता है
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